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धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः | मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय || 1 ||
धृतराष्ट्र बोले—हे सञ्जय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?
Dhratrastra said: Sañjaya, gathered on the sacred soil of Kuruksetra, eager to fight, what did my children and the children of Pandu do?
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2
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा | आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् || 2 ||
सञ्जय बोले—उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूह रचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा।
Sañjaya said: At that time, seeing the army of the Pandavas drawn up for battle and approaching Dronacarya King Duryodhana spoke these words:
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3
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् | व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥३॥
हे आचार्य! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डु पुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये ॥३॥
Behold, Master, the mighty army of the sons of Pandu arrayed for battle by your talented pupil, Dhrstadyumna, son of Drupada.
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4
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि | युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥४॥
इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्म्यक और विराट तथा
Here are heroes, mighty archers equal in battle to Bhima and Arjuna; Yuyudhana, Virata, and Drupada, the maharathis.
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6
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् | सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥६॥ अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः | नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः || ६ ||
युधामन्यु, विक्रांत, उत्तमौजा, वीर्यवान् सौभद्र और द्रौपदी के पुत्र सभी महारथी हैं। और भी मेरे लिये जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और सब-के-सब युद्ध में चतुर हैं ॥६॥
the best of men and mighty Yudhamanyu, and valiant Uttamauja, Abhimanyu, the son of Subhadra, and the five sons of Draupadi,—all of them Maharathis (warrior chiefs).
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7
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्बोध द्विजोत्तम। नायकाः मम सैन्यस्य संज्ञार्थ तान्ब्रवीमि ते॥७॥
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिये। आपकी जानकारी के लिये मेरी सेना के जो-जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ॥७॥
O best of Brahmanas, know them also who are distinguished among us, the commanders of my army; I tell you their names for your information.
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8
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिजिज्ञसः | अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च || ८ ||
आप—द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्राम विजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सौमदत पुत्र भूरिश्रवा ॥८॥
Yourself and Bhisma and Karna and Kripa, who is ever victorious in battle; and even so Asvatthama, Vikarna and Bhurisrava (the son of Somadatta);
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9
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः। नानाशस्त्रप्रहरणा: सर्वे युद्धविशारदाः ।।६।।
और भी मेरे लिये जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और सब-के-सब युद्ध में चतुर हैं ।। ६।।
And there are many other heroes, equipped with various weapons and missiles, who have staked their lives for me, all skilled in warfare. (9)
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10
अपयान्तं तदस्माकं बलं भीमाभिरक्षितम्। पर्याप्तं तिवदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्॥१०॥
भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है ॥१०॥
This army of ours, fully protected by Bhisma, is unconquerable; while that army of theirs, guarded in every way by Bhima, is easy to conquer.
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11
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः। भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि॥११॥
इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निःसन्देह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें ॥११॥
Therefore, stationed in your respective positions, all of you should surely protect Bhisma on all sides.
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12
तस्य संजनयतु हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः | सिंहनादं विनयोच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान् ॥१२॥
कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदयमें हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया ॥१२॥
The grand old man of the Kaurava race, their glorious grand-uncle Bhisma, cheering up Duryodhana, roared terribly like a lion and blew his conch. (12)
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13
ततः शंखश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः | सहसेवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥१३॥
इसके पश्चात शंख और नगारे तथा ढोल, मृदंग और नरसिंधे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ ॥१३॥
Then conches kettledrums tabors, drums and trumpets suddenly blared forth and the noise was tumultuous. (13)
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14
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितो | माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यो शङ्खो प्रदध्मतुः ॥१४॥
इसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाये ॥१४॥
Then seated in a glorious chariot drawn by white horses, Sri Krsna as well as Arjuna blew their celestial conches. (14)
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15
पाञ्जन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः | पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः ॥१५॥
श्रीकृष्ण महाराज ने पाञ्जन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्म वाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया ॥१५॥
Sri Krsna blew His Conch named Pañcajanya; Arjuna, his own called Devadatta; while Bhima of terrible deeds blew his mighty conch Paundra. (15)
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16
अनन्तविजयं राजा कुंती पुत्रो युधिष्ठिरः । नकूलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥१६॥
कुंती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्त विजय नामक और नकूल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये ॥१६॥
King Yudhisthira, son of Kunti, blew his conch Anantavijaya; while Nakula and Sahadeva blew theirs, known as Sughosa and Manipuspaka respectively.
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17
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः । धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥१७॥
श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि,
And the excellent archer, the King of Kasi and Sikhandi the Maharathi (great car-warrior),
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18
दुपद्रो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते । सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥१८॥
राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु—इन सभी ने, हे राजन्! सब और से अलग-अलग शंख बजाये ॥१७-१८॥
and the sons of Drupada and Draupadi, and the mighty-armed Subhadra's son Abhimanyu—all of them, O King, blew their respective conches separately.
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19
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् | नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्युनादयन् || १९ ||
और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गूँजाते हुए धार्तराष्ट्रों के यानी आपके पक्ष वालों के हृदय विदीर्ण कर दिये || १९ ||
And the terrible sound, echoing through heaven and earth, rent the hearts of Dhritarashtra’s sons.
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20
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः | प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः || २० || हे राजन् ! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को देखकर, उस शत्रु चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा—हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिये ॥२०॥
अथ व्यवस्थित धार्तराष्ट्रों को कपिध्वज (अर्जुन) ने देखा, जब वे शस्त्रों से सुसज्जित हो गए, तब धनुष उठाकर पाण्डव ने युद्ध की तैयारी की। हे राजन् ! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को देखकर, उस शत्रु चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा—हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिये ॥२०॥
Then, seeing the arranged armies of the sons of Dhritarashtra, the one with the banner of Hanuman (Arjuna) took up his bow, ready for battle. Now, O lord of the earth, seeing your sons arrayed against him, and when missiles were ready to be hurled, Arjuna, son of Pandu, took up his bow and then addressed the following words to Sri Krsna; Krsna, place my chariot between the two armies. (20)
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21
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते | सेनयोः मध्येमध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत || २१ || यावदेतानिरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् । कैर्मया सह योद्धव्यस्मिन् रणसमुद्यमे ॥२१॥
तब हे पृथिवीपति (कृष्ण), हृषीकेश (कृष्ण) ने कहा, हे अच्युत, सेनाओं के मध्य में मेरा रथ स्थापित करो। और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख लूँ कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिये ॥२१॥
Then, O King, Hrishikesha (Krishna) said these words: Place my chariot in the midst of the armies, O Achyuta. And keep it there till I have carefully observed these warriors drawn up for battle, and have seen with whom I have to engage in this fight. (21)
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22
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्। कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ।।२।।
और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख लूँ कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिये ।। २२ ।।
And keep it there till I have carefully observed these warriors drawn up for battle, and have seen with whom I have to engage in this fight.
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23
योऽस्मान् नवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः | धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युधि प्रियचिकीर्षवः || २३ ||
दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आये हैं, इन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा ॥ २३ ॥
I shall scan the well-wishers in this war of evil-minded Duryodhana, whoever have assembled on this side and are ready for the fight.
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24
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत | सेनयोर्घोषो मध्वे स्थापयित्वा रथोत्तमम् || २४ ||
सज्जय बोले—हे धृतराष्ट्र! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्रीकृष्ण चन्द्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके इस प्रकार कहा कि हे पार्थ! युद्ध के लिये जुटे हुए इन कौरवों को देख ॥ २४ ॥
Thus addressed, Hrishikesha, the son of Gudakesha, stationed the best chariot in the midst of the armies, sounding the war-cry.
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25
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् | उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरुनन्दन || २५ ||
भीष्म और द्रोणाचार्य के नेतृत्व में सभी राजाओं को देखकर पार्थ ने कहा—
At the head of all the kings, led by Bhishma and Drona, Arjuna said: O son of Kuru, behold these assembled warriors.
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26
तत्रापस्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् । आचार्यान्मातुलान् श्रुतपुत्रान् पौत्रान् सर्वसत्त्वान् ॥ २६ ॥ श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों को, दादों परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा ।। २६ और २७वें का पूर्वार्ध ।।
Now Arjuna saw stationed there in both the armies his uncles, grand-uncles and teachers, even great grand-uncles, maternal uncles, brothers and cousins, sons and nephews, and grand-nephews, even so friends, fathers-in-law and well-wishers as well.
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27
तान् समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धुनवस्थितान्।। २७।। कृपया परयाविष्टो विषीदद्द्रिमदम्बरेऽवत् ।
उन उपस्थित सम्पूर्ण बन्धुओं को देखकर वह कुत्तीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह बचन बोले ।। २७वेंका उत्तरार्ध और २८वेंका पूर्वार्ध ।।
Seeing all those relations present there, Arjuna was filled with deep compassion, and uttered these words in sadness. (Second half of 27 and first half of 28).
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28
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।। २८।। सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति। वेपथुश्च शरीरे मे रोमाञ्चश्च जायते।। २८।।
अर्जुन बोले—हे कृष्ण ! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमाञ्च हो रहा है ।। २८वेंका उत्तरार्ध और २६ ।।
Arjuna said—O Krishna! Seeing my own kinsmen eager to fight, my limbs are weakening, my mouth is drying up, and my body is trembling with shivers and goosebumps.
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30
गाण्डीवं संस्ते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते | न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः || ३० ||
हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ || ३० ||
The bow, Gandiva, slips from my hand and my skin too burns all over; my brain is whirling, as it were, and I can stand no longer. (30)
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31
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव | न च श्रेयोऽजुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे || ३१ ||
हे केशव! मैं लक्ष्णों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता || ३१ ||
And, Kesava, I see such omens of evil, nor
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32
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च । किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥ ३२ ॥
हे कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही । हे गोविन्द ! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है ? ॥ ३२ ॥
Krsna, I do not covet victory, nor kingdom nor pleasures. Govinda, of what use will kingdom, or luxuries, or even life be to us! (32)
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33
येषामर्थं काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च । त इमेवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥ ३३ ॥
हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादि अभिष्ट हैं; वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्याग कर युद्ध में खड़े हैं॥ ३३॥
Those very persons for whose sake we covet the throne, luxuries and pleasures—are here arrayed on the battlefield, having renounced wealth and even life itself. (33)
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34
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः। मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा॥३४॥
गुरुजन, ताऊ-चाचा, लड़के और उसी प्रकार दादा, मामा, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं॥ ३४॥
Teachers, fathers, sons, grandfathers, maternal uncles, fathers-in-law, grandsons, brothers-in-law and other relatives are also present here in battle. (34)
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35
एतत्र हन्तुमिच्छामि नतोऽपि मधुसूदन। अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते॥ ३५॥
हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता; फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है?॥ ३५॥
O Slayer of Madhu, I do not want to kill them, though they should slay me, even for the throne of the three worlds; how much the less from earthly lordship!
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निहत्य धार्तराष्ट्रान् का प्रीति: स्याज्जनार्दन। पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः।।३६।।
हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा।।३६।।
Krsna, how can we hope to be happy slaying the sons of Dhrtarastra; killing these desperadoes sin will surely take hold of us. (36)
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37
तस्माभार्थं वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वजनध्वान्। स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।३७।।
अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?।।३७।।
Therefore, Krsna, it does not behove us to kill our relations, the sons of Dhritarashtra. For how can we be happy after killing our own kinsmen? (37)
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38
यद्यप्ये न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः | कुलक्षयकृतं दोषं मित्रदोहे च पातकम् || ३८ ||
यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते,
Even if these people, with minds blinded by greed; perceive no evil in destroying their own race
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39
कथं न ज्ञेयमसामिः पापादस्माभिर्वर्तितुम् | कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्नारदर्न || ३९ ||
तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिए।
and no sin in treason to friends, why should not we, O Krsna, who see clearly the sin accruing from the destruction of one’s family think of turning away from this crime.
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40
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः | धर्मं नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत || 40 ||
कुल के नाश से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है ॥ 40 ॥
Age-long family traditions disappear with the destruction of a family; and virtue having been lost, vice takes hold of the entire race.
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41
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः | स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः || 41 ||
हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है ॥ 41 ॥
With the preponderance of vice, Krsna, the women of the family become corrupt; and with the corruption of women, O descendant of Vrsni, there ensues an intermixture of castes.
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42
संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च । पतन्ति पितरो षेषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥४२॥
वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात् श्रद्धा और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं ॥४२॥
Admixture of blood damns the destroyers of the race as well as the race itself. Deprived of the offerings of rice and water (Sraddha, Tarpana, etc.,) the manes of their race also fall.
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दोषैरैतेः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः । उत्पाद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माभ्यशाश्वताः ॥४३॥
इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं ॥४३॥
Through these evils bringing about an intermixture of castes, the age-long caste- traditions and family customs of the killers of kinsmen get extinct. (43)
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उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन। नरकेनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥४४॥
हे जनार्दन ! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं ॥४४॥
Krsna, we hear that men who have lost their family traditions dwell in hell for an indefinite period of time.
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45
अहो वत महत्पापं कर्तुं व्यवसिताः वयम्। यदाज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुच्यताः॥४५॥
हा ! शोक ! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान् पाप करने को तैयार हो गये हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिये उद्यत हो गये हैं ॥४५॥
Oh what a pity! Though possessed of intelligence we have set our mind on the commission of a great sin in that due to lust
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यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शत्रुपाणयः | धाताराष्ट्रे रणे हन्यस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् || ४६ ||
यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिये हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक होगा ॥ ४६ ॥
It would be better for me if the sons of Dhritarashtra, armed with weapons, killed me in battle while I was unarmed and unresisting.
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एवमुक्तःसञ्जयः सङ्ख्ये स्थापयस्थपथ उपाविशत् | विषूच्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः || ४७ ||
सञ्जय बोले— रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाला अर्जुन इस प्रकार कहकर वाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पीछे भाग में बैठ गया ॥ ४७ ॥
Thus addressed, Sanjaya, standing in the midst of the armies, sat down on the chariot’s seat, his mind overwhelmed with grief, and having set aside his bow and arrows.
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तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् | विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥1॥
सज्जय बोले—उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान् मधुसूदन ने यह वचन कहा॥1॥
Sañjaya said: Sri Krsna then addressed the following words to Arjuna, who was as mentioned before overwhelmed with pity, whose eyes were filled with tears and agitated, and who was full of sorrow.
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कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् । अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥२॥
श्रीभगवान् बोले—हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरण है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्तिको करने वाला ही है ॥२॥
Sri Bhagavan said: Arjuna, how has this infatuation overtaken you at this odd hour? It is shunned by noble souls; neither will it bring heaven, nor fame, to you.
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3
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते । क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥३॥
इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परन्तप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिये खड़ा हो जा ॥३॥
Yield not to unmanliness, Arjuna; ill does it become you. Shaking off this paltry faint-heartedness stand up, O scorcher of enemies.
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4
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन | इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजाहविरसूदन || ४ ||
अर्जुन बोले— हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार वाणों से भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं॥ ४॥
Arjuna said: How, Krsna, shall I fight Bhisma and Drona with arrows on the battlefield? They are worthy of deepest reverence, O destroyer of foes.
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गुरूनहवा हि महानुभावांश्चैव भूतानां भैक्ष्यमपीह लोके | हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव भुज्यीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् || ५ ||
इसलिए इन महानुभाव गुरुओं को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ। क्योंकि गुरुओं को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा॥ ५॥
Therefore, I consider it better not to kill these venerable teachers in this world, even if it means living on alms. For if I kill the teachers, I shall enjoy only the blood-stained wealth and pleasures of this world.
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6
न चैतद्दुःखतरं गरीयं यदाजयेम यदि वा नो जयेमुः । यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रभुगे धार्तराष्ट्राः ॥६॥
हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना—इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिन को मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं ॥६॥
Wo do not even know which is preferable for us—to fight or not to fight; nor do we know whether we shall win or whether they will conquer us. Those very sons of Dhrtarastra, killing whom we do not even wish to live, stand in the enemy ranks. (6)
2
7
कार्पण्यदोषपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः। यच्छ्रेयोऽस्मि तत्त्वं ज्ञात्वा तन्ने शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥७॥
इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याण कारक हो, वह मेरे लिये कहिये; क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये॥७॥
With my very being tainted by the vice of faint-heartedness and my mind puzzled with regard to duty, I am asking you. Tell me that which is decidedly good; I am Your disciple. Pray instruct me, who have put myself into Your hands.
2
8
न हि प्रपश्यामि ममापुत्रधर्म्छोकमश्छोणमिन्द्रियाणाम्। अवाप्य भूमावसपलमृदं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्॥८॥
क्योंकि भूमि में निःस्फुटक, धन-धान्य सम्पत्र राज्य और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके॥८॥
For I do not see that which can remove the sorrow of my senses, even after gaining the kingdom on this earth, the wealth of the earth, and the lordship of the gods.
2
9
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप । न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तुष्णीं बभूव ह ॥६॥
सज्जय बोले—हे राजन! निःश्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्तर्मी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्रीगोविन्द भगवान् से 'युद्ध नहीं करूँगा' यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये ॥६॥
Sañjaya said: O king, having thus spoken to Sri Krsna, Arjuna again said to Him, “I will not fight,” and became silent.
2
10
तं उवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत। सेनयोः उभयोः मध्ये विषीदन्तमिदं वचः॥१०॥
हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अन्तर्व्यापी श्रीकृष्ण महाराज ने दोनों सेनाओं के बीच शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए ये वचन बोले॥ १०॥
Then, O Dhritarashtra, Sri Krishna, as if smiling, addressed the following words to sorrowing Arjuna, in the midst of the two armies. (10)
2
11
अशोच्यानन्वशोचस्तं प्रज्ञावादांश्च भाषसे | गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ||११||
श्रीभगवान बोले – हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिये शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है; परंतु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते ॥११॥
Sri Bhagavan said: Arjuna, you grieve over those who should not be grieved for, and yet speak like the learned; wise men do not sorrow over the dead or the living. (11)
2
12
न सेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः । न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥१२॥
न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे ॥१२॥
In fact, there was never a time when I was not, or when you or these kings were not. Nor is it a fact that hereafter we shall all cease to be.
2
13
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥१३॥
जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; उस विषय में धीरो पुरुष मोहित नहीं होता ॥१३॥
Just as boyhood, youth and old age are attributed to the soul through this body, even so it attains another body. The wise man does not get deluded about this.
2
14
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदा: | आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत || १४ ||
हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी-गर्मी और सुख — दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य हैं; इसलिए हे भारत ! उनको तू सहन कर ।। १४ ।।
O son of Kunti, the contacts between the senses and their objects, which give rise to the feeling of heat and cold, pleasure and pain etc., are transitory and fleeting; therefore, Arjuna, ignore them.
2
15
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ | समदुःखसुखं धीं सोऽमृतत्वाय कल्पते || १५ ||
क्योंकि हे पुरुष श्रेष्ठ ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रियाँ और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है ।। १५ ।।
Arjuna, the wise man to whom pain and pleasure are the same, who is not disturbed by the contacts of the senses and their objects, is fit for immortality.
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16
नास्तो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । उभयोः रिपृच्छतोऽन्तस्त्वन्योस्तत्त्वदर्शिभिः ॥१६॥
असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों को ही तत्त्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है ॥१६॥
The unreal has no existence, and the real never ceases to be, the reality of both has thus been perceived by the seers of truth. (16)
2
17
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् । विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥१७॥
नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्-दृश्य वर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है ॥१७॥
Know that to be indestructible by which all this is pervaded. No one is able to destroy that imperishable entity. (17)
2
18
अन्तवत्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण: | अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्मादुध्यस्व भारत || १७ ||
इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के सब शरीर नाशवानु कहे गये हैं। इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर।
Know that alone to be imperishable, which pervades this universe; for no one has power to destroy this indestructible substance.
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19
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् | उभौ तो न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते || १८ ||
जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मारा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते; क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जाता है।
All these bodies pertaining to the imperishable, indefinable and eternal soul are spoken of as perishable; therefore, Arjuna, fight.
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20
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥२०॥
यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥२०॥
The soul is never born nor dies; nor does it become only after being born. For it is unborn, eternal, everlasting and ancient; even though the body is slain, the soul is not.
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21
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् | कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् || २१ ||
हे पुत्रपुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है || २१ ||
Arjuna, the man who knows this soul to be imperishable, eternal and free from birth and decay,—how and whom will he cause to be killed, how and whom will he kill? (21)
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22
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि | तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही || २२ ||
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है || २२ ||
As a man shedding worn-out garments, takes other new ones, likewise the embodied soul, casting off worn-out bodies, enters into others which are new. (22)
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23
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥२३॥
इस आत्मा को शस्त्रादि नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता॥२३॥
Weapons cannot cut it, nor can fire burn it; water cannot wet it nor can wind dry it. (23)
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24
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥२४॥
क्योंकि यह आत्मा अछेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और नि:सन्देह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है॥२४॥
For this soul is incapable of being cut; it is proof against fire, impervious to water and undriable as well. This soul is eternal, omnipresent, immovable, constant and everlasting. (24)
2
25
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते | तस्मादेवं विदित्वे नानुशोचितुमर्हसि ॥२५॥
यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपयुक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात तुझे शोक करना उचित नहीं है ॥२५॥
This soul is unmanifest; it is unthinkable; and it is spoken of as immutable. Therefore, knowing this as such, you should not grieve. (25)
2
26
अथ चैन्नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् | तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥२६॥ आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन्माश्चर्यवद्वदति तदैव चान्यः | आश्चर्यवच्चैनमस्यः श्रुणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥ २६ ॥
किंतु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरनेवाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है ॥२६॥ कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्त्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता ॥ २६ ॥
And, Arjuna, if you should suppose this soul to be subject to constant birth and death, even than you should not grieve like this. (26) Hardly anyone perceives this soul as marvellous, scarce another likewise speaks thereof as marvellous, and scarce another hears of it as marvellous; while there are some who know it not even on hearing of it.
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27
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्र्वं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्येऽर्थं न त्वं शोचितुमर्हसि ॥२७॥
क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने के योग्य नहीं है॥२७॥
For in that case death is certain for the born, and rebirth is inevitable for the dead. You should not, therefore, grieve over the inevitable.
2
28
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत । अव्यक्तनिधानान्येव तत्र का परिदेवन ॥२८॥
हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं; केवल बीच में प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?॥२८॥
Arjuna, before birth beings are not manifest to our human senses; at death they return to the unmanifest. What is there to grieve about in such a state?
2
30
देही नित्यवधोऽयं देहे सर्वस्य भारत | तस्मात्स्ववाणी भूतानि न त्वं शोचitumर्हसि ॥३०॥
हे अर्जुन! यह आत्मा सब के शरीरों में सदा ही अवध्य है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिये तू शोक करने को योग्य नहीं है ॥३०॥
Arjuna, this soul dwelling in the bodies of all can never be slain; therefore, you should not mourn for anyone. (30)
2
31
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि | धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥३१॥
तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है यानी तुझे भय नहीं करना चाहिये; क्योंकि क्षत्रिय के लिये धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है ॥३१॥
Besides: considering your own duty too you should not waver; for there is nothing superior for a warrior than a righteous war. (31)
2
32
यदृच्छया चोपपत्तं स्वर्ग doorsमपावृतम् | सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् || ३२ ||
हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं।। ३२ ।।
Arjuna, happy are the Ksatriyas who get such an unsolicited opportunity for war; which opens the door to heaven. (32)
2
33
अथ चेत्तवमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि | ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि || ३३ ||
किंतु यदि तू इस धर्म युक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा।। ३३ ।।
Now, if you refuse to fight this righteous war, then, shirking your duty and losing your reputation, you will incur sin. (33)
2
34
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेजस्व्याम् | सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते || ३४ ||
तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिये अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है ।। ३४ ।।
Nay, people will also pour undying infamy on you; and infamy brought on a man enjoying popular esteem is worse than death.
2
35
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः | येषां च त्वं बहुमतो भूता यास्यसि लाघवम् || ३५ ||
और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे ।। ३५ ।।
And the warrior-chiefs who thought highly of you, will now despise you, thinking that it was fear which drove you from battle.
2
36
अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः। निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्॥३६॥
तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए तुझे बहुत-से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे; उससे अधिक दुःख और क्या होगा॥ ३६॥
And your enemies, disparaging your might, will speak many unbecoming words; what can be more distressing than this? (36)
2
37
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् | तस्मादुतिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥३७॥
या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिये निश्चय करके खड़ा हो जा॥३७॥
Die, and you will win heaven; conquer, and you enjoy sovereignty of the earth; therefore, stand up, Arjuna, determined to fight. (37)
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38
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ | ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥३८॥
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझ कर, उसके बाद युद्ध के लिये तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा ॥३८॥
Treating alike victory and defeat, gain and loss, pleasure and pain, get ready for the fight, then; fighting thus you will not incur sin.
2
39
एषा तेऽभिहिता साख्ये बुद्धियोगे तिमिरान्धः | बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहस्यसि ॥३९॥
हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञान योग के विषय में कही गयी और अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन कि जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बन्धन को भलीभाँति त्याग देगा यानि सर्वथा नष्ट कर डालेगा ॥३९॥
Arjuna, this attitude of mind has been declared to you in the knowledge yoga; now hear it in the karma yoga by which, being united with wisdom, you will thoroughly destroy the bondage of actions.
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40
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते । स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥ ४० ॥
इस कर्मयोग में आरम्भ का अर्थात् बीज का नाश नहीं है और उलटा फलस्वरूप दोष भी नहीं है; बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म-रूप महान् भय से रक्षा कर लेता है ॥ ४० ॥
In this path (of disinterested action) there is no loss of effort, nor is there fear of contrary result. Even a little practice of this discipline saves one from the terrible fear of birth and death.
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41
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन । बहुशाखा हन्ताश्च बुद्धियोगव्यवसायिनाम् ॥४१॥
हे अर्जुन ! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है; किंतु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदोंवाली और अनन्त होती हैं ॥४१॥
Arjuna, in this Yoga (of disinterested action) the intellect is determinate and directed singly towards one ideal; whereas the intellect of the undecided (ignorant men moved by desires) wanders in all directions, after innumerable aims.
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42
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः । वेदवादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन: ॥४२॥
हे अर्जुन! जो अविवेकीजन वेदों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मानते, वे वेदों की पुष्पित वाणी को कहते हैं।॥ ४२॥
Arjuna, those unwise ones who are devoted to the letter of the Vedas and argue that there is nothing beyond heaven, utter flowery speech. (42)
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43
कामात्मान: स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् । क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥४३॥
ऐसे कामात्मा लोग स्वर्ग और जन्मकर्म के फलों के पीछे पड़े रहते हैं। वे अनेक प्रकार के कर्मों में लगे रहते हैं और भोगों और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं।॥ ४३॥
Those who are full of desires, whose goal is heaven, who cling to rebirth and the fruits of action, who delight in various ritualistic works aimed at enjoyment and power. (43)
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44
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तया पहतचेतसाम् । व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते ॥४४॥
भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती।॥ ४४॥
For those whose minds are carried away by attachment to enjoyment and wealth, the determinate intellect for meditation on God does not arise. (44)
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45
त्रैगुणविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवर्जुन। निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो नियोगक्षेम आत्मवान्॥४५॥
हे अर्जुन ! वेद उपयुक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं; इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों, आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वन्द्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योगक्षेमकों न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तःकरणवाला हो।
Arjuna, the Vedas thus deal with evolutes of the three Gunas (modes of Prakriti); viz., worldly enjoyments and the means of attaining such enjoyments; be thou indifferent to these enjoyments and their means, rising above pairs of opposites like pleasure and pain etc., established in the Eternal Existence (God), absolutely unconcerned about the supply of wants and the preservation of what has been already attained, and self-controlled.
2
46
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके। तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥४६॥
सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है॥४६॥
A Brahmana, who has obtained enlightenment, has the same use for all the Vedas as one who stands at the brink of a sheet of water overflowing on all sides has for a small reservoir of water.
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47
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥४७॥
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥४७॥
Your right is to work only, but never to the fruit thereof. Be not instrumental in making your actions bear fruit, nor let your attachment to be inaction.
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48
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय | सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥४८॥
हे धनञ्जय! तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व ही योग कहलाता है ॥४८॥
Arjuna, perform your duties established in Yoga, renouncing attachment, and even-tempered in success and failure; evenness of temper is called Yoga.
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49
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय | बुद्धो शरणमिन्द्रियाणां कृपणः फलहेतवः ॥४९॥
इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनञ्जय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ़ अर्थात् बुद्धियोग का ही आश्रय
Far inferior is action performed with attachment, O Dhananjaya, compared with the yoga of wisdom. The wise seek refuge in wisdom, renouncing the fruits of action, for the ignorant are attached to the fruits.
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50
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥५०॥
समबुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात् उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा; यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात् कर्मबन्धन से छुटने का उपाय है ॥५०॥
Endowed with equanimity, one sheds in this life both good and evil. Therefore, strive for the practice of this Yoga of equanimity. Skill in action lies in (the practice of this) Yoga.
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51
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनिषिणः | जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥५१॥
क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्मरूप बन्धन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं ॥५१॥
For wise men possessing an equipo­sied mind, renouncing the fruit of actions and freed from the shackles of birth, attain the blissful supreme state.
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52
यदा ते मोहकलिलं बुद्ध्यस्तत्परं तपस्विनाम् | तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥५२॥
जिस काल में तेरी बुद्धि मोह रूप दलदल को भलीभाँति पार कर जायेगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा ॥५२॥
When your mind will have fully crossed the more of delusion, you will then grow indifferent to the enjoyments of this world.
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53
शुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला । समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥५३॥
भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जायेगी, तब तू योग को प्राप्त हो जायेगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जायेगा ॥५३॥
When your intellect, confused by hearing conflicting statements, will rest, steady and undistracted (in meditation) on God, you will then attain Yoga (for lasting union with God).
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54
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः किं प्रभाते किमासीत्त्र ब्रजेत किम् ॥५४॥ स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? ॥५४॥
अर्जुन बोले—हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? अर्जुन ने कहा: कृष्ण, परमात्मा को प्राप्त हुए सिद्ध योगी की वह क्या पहचान है जो मन में स्थिर रहता है और समाधि में स्थित है? वह व्यक्ति कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?
Arjuna said: O Keshava, what is the description of a man of steady wisdom, who is established in Samadhi? What does he do at dawn, what in the evening, and what at night? Arjuna said: Krsna, what is the definition (mark) of a God-realized soul, stable to mind and established in Samadhi (perfect tranquillity of mind)? How does the man of stable mind speak, how does he sit, how does he walk?
2
55
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥५५॥
श्री भगवान बोले—हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही सन्तुष्ट रहता है, उस काल में स्थित प्रज्ञ कहा जाता है ॥५५॥
Sri Bhagavan said: Arjuna, when one thoroughly dismisses all cravings of the mind, and is satisfied in the self through (the joy of) the self, then he is called stable of mind.
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56
दुःखेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह: | वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥५६॥
दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है ॥५६॥
The sage, whose mind remains unperturbed amid sorrows, whose thirst for pleasure has altogether disappeared, and who is free from passion, fear and anger, is called stale of mind.
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