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54
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः किं प्रभाते किमासीत्त्र ब्रजेत किम् ॥५४॥ स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? ॥५४॥
अर्जुन बोले—हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? अर्जुन ने कहा: कृष्ण, परमात्मा को प्राप्त हुए सिद्ध योगी की वह क्या पहचान है जो मन में स्थिर रहता है और समाधि में स्थित है? वह व्यक्ति कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?
Arjuna said: O Keshava, what is the description of a man of steady wisdom, who is established in Samadhi? What does he do at dawn, what in the evening, and what at night? Arjuna said: Krsna, what is the definition (mark) of a God-realized soul, stable to mind and established in Samadhi (perfect tranquillity of mind)? How does the man of stable mind speak, how does he sit, how does he walk?
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55
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥५५॥
श्री भगवान बोले—हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही सन्तुष्ट रहता है, उस काल में स्थित प्रज्ञ कहा जाता है ॥५५॥
Sri Bhagavan said: Arjuna, when one thoroughly dismisses all cravings of the mind, and is satisfied in the self through (the joy of) the self, then he is called stable of mind.
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56
दुःखेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह: | वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥५६॥
दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है ॥५६॥
The sage, whose mind remains unperturbed amid sorrows, whose thirst for pleasure has altogether disappeared, and who is free from passion, fear and anger, is called stale of mind.
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57
य: सर्वत्रानभिस्नेहस्ततत्प्राप्य शुभाशुभम् | नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥५७॥
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है ॥५७॥
He who is unattached to everything, and meeting with good and evil, neither rejoices nor recoils, his mind is stable.
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58
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। इन्द्रियाणिन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥५८॥
जैसे कछुवा अपने सब अंगों को समेट लेता है, वैसे ही जिसने अपनी सब इन्द्रियों को हटा लिया है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है॥५८॥
When like a tortoise, which draws in its limbs from all directions, he withdraws his senses from the sense-objects, his mind is (should be considered as) stable.
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59
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। रसवर्जं रसोपस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥५९॥
इन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परंतु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती॥५९॥
Objects of the senses turn away from the abstinent embodied soul; having tasted the sweetness of the sense-objects, he turns away from them.
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60
यतोऽपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः | इन्द्रियाणि प्रमाथिनी हरन्ति प्रसभं मनः || ६० ||
हे अर्जुन ! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत करते हुए बुद्धिमान् पुरुष के मन को बलात्कार से हर लेती हैं ॥ ६० ॥
Turbulent by nature, the senses even of a wise man, who is practising self-control, forcibly carry away his mind, Arjuna.
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61
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः | वशेहि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || ६१ ||
इसलिए साधक को चाहिये कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे; क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है ॥ ६१ ॥
Having restrained all the senses, he should sit with his mind fixed on Me, devoted and controlling his senses; for the man who has his senses under control, his wisdom is firmly established.
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62
ध्यायतो विषयान् पुरुषः सङ्गस्तेषूपजायते | सङ्गात्स्जायते कामः कामाक्रोधोऽभिजायते ॥६२॥
विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विफल पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है ॥६२॥
The man dwelling on sense-objects develops attachment for them; from attachment springs up desire, and from desire (unfulfilled) ensues anger. (62)
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63
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः | स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥६३॥
क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि
From anger arises delusion; from delusion, loss of memory; from loss of memory, the destruction of intelligence; and when intelligence is destroyed, one falls down again into the material pool. (63)
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64
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैः परेऽषरन् | आत्मवशैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥६४॥
परंतु अपने अधीन किये हुए अन्तःकरणवाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है ॥६४॥
But the self-controlled practicant, while enjoying the various sense-objects through his senses, which are disciplined and free from likes and dislikes, attains placidity of mind. (64)
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65
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते | प्रसन्नचेतसो माशु बुद्धिः पर्यवतीष्टते ॥६५॥
मन की प्रसन्नता से सभी दुःखों का नाश हो जाता है। प्रसन्नचित्त मनुष्य की बुद्धि शीघ्र ही पूर्ण होती है॥६५॥
With the attainment of such placidity of mind, all his sorrows come to an end; and the intellect of such a person of tranquil mind, soon withdrawing itself from all sides, becomes firmly established in God.
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66
नास्ति बुद्धियुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना। न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्॥६६॥ या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी | यसां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः || ६६ ||
न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है ? ॥६६॥ सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान् सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिये वह रात्रि के समान है ॥६६॥
He who has not controlled his mind and senses can have no reason; nor can such an undisciplined man think of God. the unthinking man can have no peace; and how That which is night to all beings, in that state (of Divine Knowledge and supreme Bliss) the God-realized Yogi keeps awake. And that (the ever-changing, transient worldly happiness) in which all beings keep awake is night to the seer.
2
67
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽजु विधीयते । तदस्य हरति प्रज्ञां वायुनर्वविमावभस्मि ॥६७॥
क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है ॥६७॥
As the wind carries away a boat upon the waters, even so of the senses moving among sense-objects, the one to which the mind is joined takes away his discrimination. (67)
2
68
तस्मादस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषुस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥६८॥
इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है ॥६८॥
Therefore, Arjuna, he whose senses are restrained in all respects from their objects, his intelligence is firmly established. (68)
2
69
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥६९॥
सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानरूप परमआनन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्त्व को जानने वाले मुनि के लिये वह रात्रि के समान है॥ ६९॥
That which is night to all beings, in that state (of Divine Knowledge and supreme Bliss) the God-realized Yogi keeps awake. And that (the ever-changing, transient worldly happiness) in which all beings keep awake is night to the seer. (69)
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70
आपूर्माणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । तद्वत्त्वा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥७०॥
जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले, समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं ॥७०॥
As the waters of different rivers enter the ocean, which though full on all sides remains undisturbed, likewise he is whom all enjoyments merge themselves attains peace; not he who hankers after such enjoyments. (70)
2
71
वही शान्ति को प्राप्त होता है अर्थात वह शान्ति को प्राप्त है ॥७१॥
वही शान्ति को प्राप्त होता है अर्थात वह शान्ति को प्राप्त है ।।७१।।
He who has given up all desires, and moves free from attachment, egoism and thirst for enjoyment attains peace. (71)
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72
एषा ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैना प्राप्य विमुञ्चति । स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मानिर्वाणमृच्छति ॥७२॥
हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अन्त काल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है ।।७२।।
Arjuna, such is the state of the God-realized soul; having reached this state, he overcomes delusion. And established in this state, even at the last moment, he attains Brahmic Bliss. (72)
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1
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मा तु बुद्धिर्जानर्दन। तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥१॥
अर्जुन बोले—हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं? ॥१॥
Arjuna said: Krsna, if you consider Knowledge as superior to Action, then why do You urge me to this dreadful action, Kesava! (1)
3
2
व्यामिश्रेण वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे। तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥२॥
आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिये जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ॥२॥
You are, as it were, puzzling my mind by these seemingly involved expressions; therefore, tell me definitely the one discipline by which I may obtain the highest good.
3
3
लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥३॥
श्रीभगवान बोले— हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले वर्णन की गयी है। उनमें से सांख्ययोगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है॥३॥
Sri Bhagavan said: Arjuna, in this world there are two kinds of disciplines, as I have explained before: the discipline of the Sankhyas is by knowledge, and the discipline of the Yogis is by action.
3
4
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते | न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥४॥
मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्याग मात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है ॥४॥
Man does not attain freedom from action (culmination of the discipline of Action) without entering upon action; nor does he reach perfection (culmination of the discipline of Knowledge) merely by ceasing to act.
3
5
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥५॥
निःसन्देह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता; क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिये बाध्य किया जाता है ॥५॥
Surely none can ever remain inactive even for a moment; for everyone helplessly driven to action by nature-born qualities.
3
6
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥६॥
जो मूढ़बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है ॥६॥
He who outwardly restraining the organs of sense and action, sits mentally dwelling on the objects of senses, that man of deluded intellect is called a hypocrite.
3
7
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥७॥
किंतु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है ॥७॥
On the other hand, he who controlling the organs of sense and action by the power of his will, and remaining unattached, undertakes the Yoga of Action through those organs, Arjuna, he excels.
3
8
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः । शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ॥८॥
तू शास्त्र विहित कर्तव्य कर्म कर; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा ॥८॥
Therefore, do you perform your allotted duty, because action is indeed better than inaction; and even the maintenance of your body would not be possible without action.
3
9
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर॥६॥
यज्ञ के निमित्त किये जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर॥६॥
Man is bound by his own action except when it is performed for the sake of sacrifice. Therefore, Arjuna, do you efficiently perform your duty, free from attachment; for the sake of sacrifice alone.
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10
सहयज्ञाः प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यधर्मो वोजस्त्विष्टकामधुक्॥१०॥ प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो ॥१०॥
सह-यज्ञों द्वारा प्रजाओं को उत्पन्न कर प्रजापति ने कहा- इस यज्ञ से ही धर्म का पालन होगा, और इससे ही कामधेनु अर्थात् इच्छाओं की पूर्ति होगी॥१०॥ प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो।
Having created mankind together with sacrifices, the Lord of creatures said: By this shall the creatures prosper; let the sacrifice be duly performed. Having created mankind along with the spirit of sacrifice at the beginning of Creation the Creator, Brahma, said to them, “You shall prosper by this; may this yield the enjoyment you seek.”
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11
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥११॥
तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थभाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे॥११॥
Foster the gods through this (sacrifice), and let the gods be gracious to you. Each fostering other disinterestedly, you will attain the highest good.
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12
इष्टान्भोगान्देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। तेर्दत्तानप्रदायैथो यो भुक्ते स्तेन एव सः॥१२॥
यज्ञ के द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चित ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिये हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिये स्वयं भोगता है, वह चोर ही है॥१२॥
Fostered by sacrifice, the gods will surely bestow on you unasked all the desired enjoyments. He who enjoys the gifts bestowed by them, without giving them in return, is undoubtedly a thief.
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13
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषेः। भुज्यते ते त्वयं पापा ये पचन्यात्मकारणात्॥१३॥
यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिये ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को खाते हैं॥१३॥
The men who eat the remnants of sacrifices are freed from all sins; but those who cook food only for their own body’s nourishment eat sin.
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14
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्याद्वसन्तं भवः | यज्ञाद्भवति पर्ज्ञो यज्ञः कर्मसमुद्भवः || १४ ||
सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है, वर्षा यज्ञ से होती है।
All beings are evolved from food; production of food is dependent on rain; rain ensues from sacrifice.
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15
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्मास्रसमुद्भवम् | तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् || १५ ||
और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। कर्म समुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।
And sacrifice is rooted in prescribed action. Know that prescribed action has its origin in the Vedas, and the Vedas proceed from the Indestructible (God); hence the all-pervading supreme imperishable Spirit is always established in sacrifice.
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16
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः। अधायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥१६॥
हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टि चक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात् अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों के द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है॥१६॥
Arjuna, he who does not follow the wheel of creation thus set going in this world (i.e., does not perform his duties), sinful and sensual, he lives in vain.
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17
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥१७॥
परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है॥ १७॥
He, however, who takes delight in the self alone and is gratified with the Self, and is contented in the self, has no duty. (17)
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18
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनह कश्चन। न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्धव्यपाश्रयः॥१८॥
उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है। तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता॥१८॥
In this world that great soul has no use whatsoever for things done nor for things not done; nor has he selfish dependence of any kind on any creature.
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19
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर। असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥१९॥
इसलिए तू निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को भलीभाँति करता रह। क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है॥१९॥
Therefore, go on efficiently doing your duty without attachment. Doing work without attachment man attains the Supreme. (19)
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20
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः। लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि॥२०॥
जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे। इसलिए तथा लोक संग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है॥२०॥
It is through action (without attachment) alone that Janaka and otherwise men reached perfection. Having an eye to maintenance of the world order too you should take to action. (20)
3
21
यथादाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥२१॥
श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है॥२१॥
For whatever a great man does, that very thing other men also do; whatever standard he sets up; the generality of men follow the same.
3
22
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन। नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥२२॥
हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ॥२२॥
Arjuna, there is nothing in all the three worlds that ought to be done by me, nor is there anything unattained that is worth attaining; yet I engage in action.
3
23
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः । मम वर्त्स्युत्तमसे मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥२३॥
क्योंकि हे पार्थ ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं ॥२३॥
Should I not engage in action, scrupulously at any time, great harm will come to the world; for, Arjuna, men follow My way in all matters. (23)
3
24
उत्तीदेयुरिस्मे लोकाः न कुर्यां कर्म चेदहम् । संकरस्य च कर्ता स्यामुपह्न्यामिमाः प्रजा: ॥२४॥
इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ ॥२४॥
If I cease to act, these worlds will perish; nay, I should prove to be the cause of confusion, and of the destruction of these people. (24)
3
25
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत । कुर्याद्धिद्धांसतथासक्ताश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥२५॥
हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्ति रहित विद्वान् भी लोक संग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे ॥२५॥
Arjuna, as the unwise act with attachment, so should the wise man, seeking maintenance of the world order, act without attachment.
3
26
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् । जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥२६॥
परमात्मा स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिये कि वह शास्त्र विहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानीयों की बुद्धि में भ्रम अर्थात् कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किंतु स्वयं शास्त्र विहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे ॥२६॥
A wise man established in the Self, should not unsettle the mind of the ignorant attached to action, but should perform all prescribed duties properly and also make others do the same.
3
27
प्रकृतिः क्रियमाणानि गुणेः कर्माणि सर्वशः | अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते || २७ ||
वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है। २७
All actions are being performed by the modes of Prakrti (Primordial Matter). The fool, whose mind is deluded by egoism, thinks: “I am the doer.” (27)
3
28
तत्त्ववित् महाबाहो गुणकर्मविभागयः | गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते || २८ || प्रकृतिगुणसमुद्धाः सज्जन्ते गुणकर्मसु । तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविवशो विचालयेत् ॥२८॥
परंतु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग के तत्व को जानने वाला ज्ञानीयोगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। २८ प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानीयों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे ॥२८॥
But, O mighty-armed, the knower of the truth about the division of the modes and the division of actions does not become attached, understanding that the modes are active within the modes. (28) He, however, who has true insight into the respective spheres of Gunas (modes of Prakrti) and their actions, holding that it is the Gunas (in the shape of the senses, mind, etc.,) that move among the Gunas (objects of perception), does not get attached to them, Arjuna. (28)
3
29
प्रकृतिगुणसमुद्धाः सज्जन्ते गुणकर्मसु । तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविवशो विचालयेत् ॥२९॥
प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानीयों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे ॥२९॥
Those who are completely deluded by the Gunas (modes) of Prakrti remain attached to those Gunas and actions; the man of perfect Knowledge should not unsettle the mind of those insufficiently knowing fools. (29)
3
30
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा । निराशीरनिर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥३०॥
मुझ अन्तर्मी परमात्मा में लगे हुए चित द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझ में अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर ॥३०॥
Therefore, dedicating all actions to Me with your mind fixed on Me, the Self of all freed from hope and the feeling of meum and cured of mental fever, fight. (30)
3
31
ये मे मतमिदं नित्यमुतिष्ठन्ति मानवाः । श्रद्धावन्तो जनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥३१॥
जो कोई मनुष्य दोष दृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं ॥३१॥
Even those men who, with an uncavilling and devout mind, always follow this teaching of Mine are released from the bondage of all actions. (31)
3
32
ये तेषद्भयसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्। सर्वज्ञानविमूढास्तांविद्धि नष्टानचेतसः॥३२॥
परंतु जो मनुष्य मुझ में दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ।॥३२॥
They, however, who, finding fault with this teaching of Mine, do not follow it, take those fools to be deluded in the matter of all knowledge, and lost.
3
33
सदृष्टो चेष्टते स्वस्यः प्रकृतोज्जानवानपि। प्रकृतिं यान्ति भूतानि नियताः किं करिष्यति॥३३॥
सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव से परवश हुए कर्म करते हैं, ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा॥३३॥
All living creatures follow their tendencies; even the wise man acts according to the nature he has acquired. What can stubbornness do?
3
34
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थ रागद्वेषौ व्यवस्थितौ | तयोर्न वशमागच्छेतो हर्ष्य परिप्लुत्नौ ॥ ३४ ॥
इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं, मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिये, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान् शत्रु हैं ॥ ३४ ॥
Attraction and repulsion are rooted in all sense-objects. Man should never allow himself to be swayed by them, because they are the two principal enemies standing in the way of his redemption.
3
35
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् | स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ ३५ ॥ गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥३५॥
अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥३५॥
One’s own duty, though devoid of merit, is preferable to the duty of another well performed. Even death in the performance of one’s own duty brings blessedness; another’s duty is fraught with fear. (35)
3
36
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः। अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥३६॥
अर्जुन बोले—हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्कार से लगाये हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है?॥३६॥
Arjuna said: Now impelled by what, Krsna, does this man commit sin even involuntarily, as though driven by force? (36)
3
37
काम एष क्रोध एष रजोगुनसमुद्भवः। महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥३७॥
श्रीभगवान बोले—रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला अर्थात् भोगों से कभी न अघाने वाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में वैरी जान॥३७॥
Sri Bhagavan said: It is desire begotten of the element of Rajas, which appears as wrath; nay, it is insatiable and grossly wicked. Know this to be the enemy in this case. (37)
3
38
धूमनाग्निप्रते वहिर्द्याधर्शो मतेन च। यथोन्मेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥३८॥ आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरेण। कामरूपेण कौन्तेय दुष्पुरेणानलेन च॥३८॥
जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढका रहता है, वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है॥३८॥ और हे अर्जुन ! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले कामरूप ज्ञानीयों के नित्य बैरी के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है ॥३८॥
As fire is covered by smoke, and a mirror by dust, and the embryo is covered by the womb, so is knowledge covered by desire. As a flame is covered by smoke, mirror by dirt, and embryo by the amnion, so is Knowledge covered by it (desire).
3
39
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा। कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।२६॥
और हे अर्जुन ! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है ।। ३६ ।।
And, Arjuna, Knowledge stand covered by this eternal enemy of the wise, known as desire, which is insatiable like fire.
3
40
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते। एतेर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥४०॥
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि—ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है ॥४०॥
The senses, mind and intellect are said to be its seat; these delude the embodied soul, covering the knowledge.
3
41
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ | पापमां प्रजहि हेनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥४१॥
इसलिए हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल ॥४१॥
Therefore, Arjuna, you must first control your senses; and then kill this evil thing which obstructs Jñāna (Knowledge of the Absolute or Nirguna Brahma) and vijñāna (Knowledge of Sakar Brahma or manifest Divinity). (41)
3
42
इन्द्रियौं को स्थूल शरीर से परे यानि श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म कहते हैं; इन इन्द्रियों से परे मन है, मन से भी परे बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अन्न्यन्त परे है वह आत्मा है ॥४२॥
इन्द्रियौं को स्थूल शरीर से परे यानि श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म कहते हैं; इन इन्द्रियों से परे मन है, मन से भी परे बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अन्न्यन्त परे है वह आत्मा है।
The senses are said to be greater than the body; but greater than the senses is the mind. Greater than the mind is the intellect; and what is greater than the intellect is he (the Self).
3
43
एवं बुद्धे परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना। जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥४३॥
इस प्रकार बुद्धि से परे अर्थात् सूक्ष्म, बलवान् और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल।
Thus, Arjuna, knowing that which is higher than the intellect and subduing the mind by reason, kill this enemy in the form of Desire that is hard to overcome.
4
1
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् | विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकुजेव्रवीत || 1 ||
श्री भगवान बोले—मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा ||1||
Sri Bhagavan said: I taught this immortal Yoga to Vivasvan (Sun-god); Vivasvan conveyed it to Manu (his son); and Manu imparted it to (his son) Iksvaku.
4
2
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप ॥२॥
हे परन्तप अर्जुन ! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना; किंतु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया ॥२॥
Thus transmitted in succession from father to son, Arjuna, this Yoga remained known to the Rajarsis (royal sages). It has, however, long since disappeared from this earth. (2)
4
3
स एवायं मया तेज्ञ योगः प्रोक्तः पुरातनः । भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥३॥
तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है; क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात् गुप्त रखने योग्य विषय है ॥३॥
The same ancient Yoga has this day been imparted to you by Me, because you are My devotee and friend; and also because this is a supreme secret. (3)
4
4
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः। कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।
अर्जुन बोले— आपका जन्म तो अवर्चीन—अभी हाल का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है अर्थात् कल्प के आदि में हो चुका था; तब मैं इस बात को कैसे समझूँ कि आप ही ने कल्प के आदि में सूर्य से यह योग कहा था।।४।।
Arjuna said: You are of recent origin, while the birth of Vivasvan dates back to remote antiquity. How, then, am I to believe that You taught this Yoga at the beginning of creations?
4
5
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेथ परंतप।।५।।
श्रीभगवान बोले— हे परन्तप अर्जुन! मेरे और तेरे
The Blessed Lord said: Many, many births both you and I have passed. I can remember all of them, but you cannot, O subduer of the enemy.
4
6
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरःऽपि सन् । प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥६॥
मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ ॥६॥
Though birthless and deathless, and the Lord of all beings, I manifest Myself through My own Yogamaya (divine potency), keeping My Nature (Prakrti) under control. (6)
4
7
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥७॥
हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात् साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ ॥७॥
Arjuna, whenever righteousness is on the decline, and unrighteousness is in the ascendant, then I body Myself forth. (7)
4
8
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥८॥
साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिये, पाप-कर्म करने वालों का विनाश करने के लिये और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ ॥८॥
For the protection of the virtuous, for the extirpation of evil-doers, and for establishing Dharma (righteousness) on a firm footing, I born from age to age. (8)
4
9
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः | त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन || ९ ||
हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक हैं—इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किंतु मुझे ही प्राप्त होता है ॥ ९ ॥
Arjuna, My birth and activities are divine. he who knows this in reality is not reborn on leaving his body, but comes to Me.
4
10
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः | बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः || १० ||
पहले भी, जिनके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गये थे और जो मुझ में अनन्य प्रेमपूर्वक स्थित रहते थे, ऐसे मेरे आश्रित रहने वाले बहुत से भक्त उपयुक्त ज्ञानरूप तपसे पवित्र होकर मेरे स्वरूप हो प्राप्त हो चुके हैं ॥ १० ॥
Completely rid of passion, fear and anger, wholly absorbed in me, depending on me, and purified by the penance of wisdom, many have become one with me even in the past.
4
11
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥११॥
हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं॥११॥
Arjuna, howsoever men seek Me; even so do I approach them; for all men follow My path in every way.
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12
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः। क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥१२॥ कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती है ॥१२॥
इस मनुष्य लोक में कर्मों के फल को चाहने वाले लोग देवताओं का पूजन किया करते हैं; क्योंकि उनको In this world of human beings; men seeking the fruition of their activities worship the gods; for success born of actions follow quickly.
In this world, the gods are eager for the success of works; indeed, in the human world, success is born of works. In this world of human beings; men seeking the fruition of their activities worship the gods; for success born of actions follow quickly.
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13
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः | तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥१३॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र—इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान॥१३॥
The four orders of society (the Brahmana, the Ksatriya, the Vaisya and the Sudra) were created by Me classifying them according to the mode of Prakrti predominant in each and apportioning corresponding duties to them;
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14
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा । इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥१४॥
कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते—इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता ॥१४॥
Since I have no craving for the fruit of actions; actions do not contaminate Me, Even he who thus knows Me in reality is not bound by actions.
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15
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः । कुरु कर्मैव तस्मात् पूर्वेः पूर्वतरं कृतम् ॥१५॥
पूर्वकाल के मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किये हैं। इसलिए तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किये जाने वाले कर्मों को ही कर ॥१५॥
Having known thus, action was performed even by the ancient seekers for liberation;
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16
किं कर्म किंकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः । तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥१६॥
कर्म क्या है? और अकर्म क्या है? – इस प्रकार इसका निर्णय करने में बुद्धिमान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। इसलिए वह कर्मतत्त्व में तुझे भलीभाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू अशुभ से अर्थात् कर्मबन्धन से मुक्त हो जायेगा॥१६॥
What is action and what is inaction? Even men of intelligence are puzzled over this question. Therefore, I shall expound to you the truth about action, knowing which you will be freed from its evil effect (binding nature).
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17
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः। अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥१७॥
कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये; तथा निषिद्ध कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्म की गति गहन है॥ १७॥
The truth about action must be known and the truth of inaction also must be known; even so the truth about prohibited action must be known. For mysterious are the ways of action. (17)
4
18
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥१८॥
जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी समस्त कर्मों को करने वाला है।
He who sees inaction in action, and action in inaction, is wise among men; he is a yogi, who has performed all action.
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19
यस्म सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः | ज्ञानिनिदधकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः || १९ ||
जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हो गये हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं || १९ ||
Even the wise call him a sage, whose undertaking are all free from desire and thoughts of the world, and whose actions are burnt up by the fire of wisdom. (19)
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20
तत्त्वकर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रयः | कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचिद् करोति सः || २० ||
जो पुरुष समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्यतृप्त है, वह कर्मों में भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता || २० ||
He who, having totally given up attachment to actions and their fruit, no longer depends on the world, and is ever satisfied, does nothing at all, though fully engaged in action. (20)
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21
निराशीर्यतचितात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः | शरीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥२१॥
जिसका अन्तःकरण और इन्द्रियों के सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पाप को नहीं प्राप्त होता ॥२१॥
Having subdued his mind and body, and given up all objects of enjoyment, and free from craving; he who performs sheer bodily actions, does not incur sin. (21)
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22
यदृच्छालाभसंतुष्टो दन्दातीतो विमत्सरः | समः सिद्धावसिद्धो च कृत्वापि न निवर्तते || २२ ||
जिसमें ईर्ष्या का सर्वथा अभाव हो गया है, जो हर्ष-शोक आदि दन्द्रों से सर्वथा अतीत हो गया है—ऐसा सिद्ध और असिद्धि में सम रहने वाला कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बँधता।
The Karmayogi, who is contented with whatever is got unsought, is free from jealousy and has transcended all pairs of opposites (like joy and grief), and is balanced in success and failure, is not bound by his action. (22)
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23
गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः | यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते || २३ ||
जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गयी है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है—ऐसे केवल यज्ञ सम्पादन के लिये कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं।
All his actions melt away, who is free from attachment, whose mind is established in knowledge, and who performs actions for the sake of sacrifice. (23)
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24
ब्रम्हार्पणं ब्रम्ह हविर्ब्रम्हाग्नो ब्रम्हणा हुतम् | ब्रम्भैव तेन गन्तव्यं ब्रम्हकर्मसमाधिना || २४ ||
जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात् सुगंध आदि भी ब्रह्म है और हवन किये जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म हैं तथा ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है—उस ब्रह्म कर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही हैं ॥२४॥
In the practice of seeing Brahma everywhere as a form of sacrifice Brahma is the ladle (with which the oblation is poured into the fire, etc.,); Brahma, again, is the oblation; Brahma is the fire, Brahma itself
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25
देवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते । ब्रह्मानावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥२५॥
दूसरे योगीजन देवताओं के पूजन रूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मा रूप अग्नि में अभेद दर्शन रूप यज्ञ के द्वारा ही आत्म रूप यज्ञ का हवन किया करते हैं ॥२५॥
Other yogis duly offer sacrifice only in the shape of worship to gods. Others pour into the fire of Brahma the very sacrifice in the shape of the self through the sacrifice known as the perception of identity.
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26
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यने संममात्मिनु जुह्वहि । शब्दादीविषयान्य इन्द्रियाणिनु जुह्वति ॥२६॥
प्रसंग - इस प्रकार देवयज्ञ और अभेददर्शन रूप यज्ञ का वर्णन करने के अन्तर्गत अब इन्द्रिय संयम रूप यज्ञ का और विषय हवन रूप का वर्णन करते हैं -
Offer the sacrifice of the senses, beginning with the ears, to the self alone. Offer the sacrifice of the objects of the senses, beginning with sound, to the senses themselves.
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27
सर्वणीनिन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे। आत्सयंयमयोगान्नो जुह्वति ज्ञानदीपते ॥ २७ ॥
दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं को और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम योग रूप अग्नि में हवन किया करते हैं ॥ २७ ॥
Others sacrifice all the functions of their senses and the functions of the vital airs into the fire of Yoga in the shape of self-control, kindled by wisdom.
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28
द्रव्यज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे । स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः सौंशितत्रता: ॥ २८ ॥
कई पुरुष द्रव्य सम्बन्धी यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही तपस्या रूप यज्ञ करने वाले हैं तथा दूसरे कितने ही योग रूप यज्ञ करने वाले हैं और कितने ही अहिंसादि तीव्रं व्रतों से युक्त यलशील पुरुष स्वाध्याय रूप ज्ञान यज्ञ करने वाले हैं ॥ २८ ॥
Some perform sacrifice with material possessions; some offer sacrifice in the shape of austerities; others sacrifice through the practice of Yoga; while some striving souls, observing austere vows, perform sacrifice in the shape of wisdom through the study of sacred texts.
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29
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे। प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥२९॥
दूसरे कितने ही योगी जन अपानवायु में प्राणवायु को हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपानवायु को हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमपूर्वक आहार करने वाले प्राणायाम परायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं॥ २९॥
Other yogis offer the act of exhalation into that of inhalation even; so others, the act of inhalation into that of exhalation. There are still others given to the practice of Pranayama (breath-control), who having regulated their diet and controlled the processes of exhalation and inhalation both pour their vital airs into the vital airs themselves. (29)
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30
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति। सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥३०॥
ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं॥ ३०॥
All these are knowers of sacrifice, whose sins are destroyed by sacrifice. (30)
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31
यज्ञाशिष्टमृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् | नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽर्जयः कुरुस्ततम् || 31 ||
हे कुरुक्षेत्र अर्जुन! यज्ञ से बचे हुए अमृत का
Those who eat the remnants of sacrifices go to the eternal Brahman; this world does not exist for one who does not perform sacrifices, how then can there be any fruit for him, O best of the Kurus?
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32
एवं बहुविध यज्ञ वितत्ता ब्रह्मणे मुखे। कर्मजानिन्द्रिः तान्सर्वानिवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे॥३२॥
इसी प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार से कहे गये हैं। उन सब को तू मन, इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा सम्पन्न होने वाले जान, इस प्रकार तत्व से जानकर उनके अनुष्ठान द्वारा तू कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त हो जायेगा॥३२॥
Many such forms of sacrifice have been set forth in detail through the mouth of the Vedas. Knowing all these as actions of the mind, senses, and body, you shall be freed from all bondage of actions by performing them.
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33
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप। सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥३३॥
हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है, तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं॥ ३३॥
Arjuna, sacrifice through Knowledge is superior to sacrifice performed with material things. For all actions without exception culminate in Knowledge, O son of Kunti. (33)
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34
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥३४॥
उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्मतत्त्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्व ज्ञान का उपदेश करेंगे॥ ३४॥
Understand the true nature of that Knowledge by approaching illumined soul. If you prostrate at their feet, render them service, and question them with an open and guileless heart, those wise seers of Truth will instruct you in that Knowledge. (34)
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35
यज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव। येन भूत्वा भूयशेषण दृष्टस्यात्मन्यथो मयि॥३५॥
जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन! जिस ज्ञान के द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों को नि:शेष भाव से पहले अपने में और पीछे मुझ सच्चिदानन्दधन परमात्मा में देखेगा॥३५॥
Arjuna, when you have reached enlightenment, ignorance will delude you no more. In the light of that Knowledge you will see the entire creation first within your own self, and then in Me (the Oversoul).
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36
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृतमः | सर्वज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि || ३६ ||
यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है; तो भी तू ज्ञान रूप नौका द्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जायेगा ॥ ३६ ॥
Even though you were the foulest of all sinners, this Knowledge alone would carry you, like a raft, across all your sin. (36)
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यथैधासि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेर्जुन | ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा || ३७ ||
क्योंकि हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है ॥ ३७ ॥
For as the blazing fire turns the fuel to ashes, Arjuna, even so the fire of Knowledge turns all actions to ashes. (37)
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न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥३७॥
इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है॥३७॥
On earth there is no purifier as great as Knowledge, he who has attained purity of heart through a prolonged practice of Karmayoga automatically sees the light of Truth in the self in course of time. (37)